सपनों में एक बाग़ लगाया
फल फूलों से उसे सजाया
सुबह हुई जब आँख खुली तो
वहीँ वीरान खुद को अकेला पाया.
दिल के गुलशन में एक फूल खिला था
कहीं दूर किसी के अपने के होने का एहसास मिला था
होश संभला तो ये ख़याल आया
अजनबी तो अजनबी होते हैं मैंने क्यों दिल को फुसलाया
राह चलते एक दिन यूँही पीछे से
किसी के क़दमों की खटखटाहट महसूस हुई
जब तक इस आनंद से दिल सराबोर होता
मुहँ मोडा तो देखा हवा का एक तेज झोंका आया
Friday, March 20, 2009
सपनों में एक बाग़ लगाया
Labels: मेरी कवितायें
Posted by वंदे मातरम at 6:47 AM
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