Thursday, April 2, 2009

वरुण उर्फ़ अभिमन्यु

पिछले कुछ दिनों से वरुण गाँधी खबरों में छाये हुए हैं. एक और मायावती को यह भय है की अगर उन्होंने वरुण को ऐसे ही छोड़ दिया तो वह राष्ट्रिय हीरो बन जायेगा और उन्हें अपने राजनितिक गढ़ उत्तर प्रदेश में सत्ता बरकरार रखने में मुश्किल पैदा होगी क्योंकि पिछले दिनों के चुनावी वाकयात में जो उलटफेर हुए हैं उससे मायावती की राजनितिक पकड़ उत्तर प्रदेश में तो जरूर ही कम पड़ी है. लालू यादव, मुलायम सिंह और रामविलास पासवान का एक साथ जुड़ना मायावती के लिए सबसे हानिकारक घटना है.

ऐसे समय में वरुण गाँधी का यकायक राजनितिक घटक में छ जाना तो मायावती को अचंभित कर गया. आनन फानन में उन्होंने अपने राजनितिक कवायदों का उपयोग करना शुरू कर दिया. पहले तो वरुण को जमानत नहीं मिली और जब मिली भी तो उन्हें राष्ट्रिय सुरक्षा के लिए खतरा के अंतर्गत फिर से अन्दर कर दिया. जिस उत्तर प्रदेश में बाहुबली और गुंडे खुले घूम रहे हैं वहां एक आदमी जो सिर्फ देश की अस्मिता, प्रतिष्ठा और सुरक्षा के रक्षा की बात करता है उसे जेल के अन्दर कर दिया जाता है. मुझे तो माया बहन की यह मायाजाल समझ में ही नहीं आया.



वरुण के राजनितिक घर बीजेपी के नेता भी कम पदेसान नहीं है. उन्हें अचानक वरुण गाँधी एक राष्ट्रनेता के रूप में जनता के सामने प्रकट होते दिखे और भावी प्रधानमंत्री पद के दावेदार लाल कृष्ण अडवाणी ने तो यहाँ तक कह डाला की वरुण को राष्ट्रिय सुरक्षा कानून के अंतर्गत कारावास देना इमर्जेंसी के वक्त धाये गये जुल्म से कम नहीं लगा.अब अडवाणी जी को कौन समझाए की वरुण राजनितिक वैमनष्यता का शिकार है और उन्हें भाषणवाजी छोड़ कर अपने एक युवा और होणार नेता को बचाने के लिए प्रयत्न करनी चाहिए.





ऐसे नाजुक समय में माँ की ममता देखिये - मेनका गाँधी ने तो यह कह दिया की उनका बेटा अभिमन्यु है जो इन छोटे मोटे घटनाओं से डरने वाले नहीं है. वरुण माँ के विश्वास की लाज रखना और पूर्ण सहस के साथ देश और देशवासियों की रक्षा की दिशा में काम करना.

Tuesday, March 24, 2009

नारी! तुम केवल श्रध्दा हो

आज ऐसे ही इन्टरनेट पर खोज कर रहा था तो लाल कृष्ण अडवाणी जी का ब्लॉग दिख गया जिसमे उन्होंने भारतीय नारी की व्यथा कथा का काफी मार्मिक ढंग से उल्लेख किया है. यह तथ्य तो सत्य है कि भारत में नारी को हम पूजनीय और देवी का रूप मानते हैं और हमारे शास्त्रों में तो यहाँ तक व्याख्यान मिलता है कि मातृदेवो भवः (माँ देवता होती है). पिछले कुछ दिन पहले जब तारे जमीन पर में यह गाना माँ मेरी माँ आया था तो उसे सुनकर आज हम सब की आँखे नाम हो जाती हैं. वास्तव में नारी को सिर्फ श्रद्धा कहना एक हद तक उनके अधिकारों का हनन करना ही है. कहीं न कहीं हम यह भूल जाते हैं की नारी सिर्फ श्रद्धा ही नहीं बल्कि शक्ति है, हमारा अस्तित्व है हमारे होने का एहसास है.

पिछले दिनों मैंने कही पढ़ा था कि संसार में एकमात्र सत्य सिर्फ माँ है. वही हमें संसार से सर्वप्रथम परिचय करवाती है और उसी कि आँखों से हम संसार को देखते हैं. नारी एक नारी के रूप अनेक. मुझे देवी भगवत का यह सन्दर्भ याद आता है जहाँ देवता गन जब राक्षसों पर विजय नहीं कर पाते तो जाकर वह शक्ति की उपासना करते हैं और फिर सारे शक्तियों का संकलित रूप ही नारी (माँ शक्ति) के रूप में अवतरित होती हैं. जननी जन्म भुमिस्च स्वर्गादपि गरीयसि (जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है).

आज में लाल कृष्ण अडवानी जी से यह पूछना चाहूँगा की पिछले सत्र में जब उनकी सरकार थी तब उन्होंने महिला आरक्षण बिल को पास क्यों नहीं करवाया. आज जब की चुनाव सर पर है तो उन्हें हमारी भारतीय नारी लाडली कैसे नजर आने लगी.

खैर जो भी हो में तो देशवासियों से यह अनुग्रह करूंगा की हम सब मिलकर अडवाणी जी को कहें की वे सपथ लें कि अगर जनता उन्हें सरकार बनाती है तो लोकसभा में उनका पहला प्रस्ताव इस योजना को लागू करना हो वरना ऐसा नहीं हो कि वे सिर्फ जनता को वादे करते रहें और पांच साल और बीत जाए और हमारी नारी फिर सी अगले चुनाव में एक और भावी प्रधानमंत्री का ब्लॉग पढ़े और वो नारियों की दुर्दशा पर फिर से रोना रोवें.

विश्व की सारी अर्थव्यवस्थाएं जो सुखी और समृद्ध हैं वहां नारीयाँ राष्ट्र की मुख्यधारा का अभिनय अंग है और पुरषों से ज्यादा शक्रिय हैं. आज अगर हम चीन, हांगकांग या सिंगापुर जाएँ तो वहां पुरुष कम महिलायें ज्यादा दिखाई देते हैं. हमारे देश में विल्कुल उलटी गंगा बहती है हम कहने के लिए तो नारी को सर्वोपरि कह देते हैं लेकिन उनकी दुर्गति का अंदाजा भी नहीं लगा सकते.

पिछले कुछ दिनों में नारियों की हालत में भी काफी सुधार हुआ है लेकिन अभी हमें बहूत कुछ करना बाकि है. हमें नारियों को शिक्षा, स्वास्थ और मौलिक सुभिधायों से सुसज्जित करनी पड़ेगी. हमें उन्हें हमकदम बनकर हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के काबिल बनाना होगा और इसके लिए सिर्फ चुनावी वादे नहीं बल्कि पूर्ण तन मन और धन से कार्य करना पड़ेगा.

आशा है अडवाणी जी सुन रहे हैं...हम आपके साथ हैं अगर आप दिल से भारतीय नारियों के साथ हैं.

क्या नैनो बनेगी भारत की २१वी सदी का सारथी

"मुझे भारतीयों को एक लाख रुपया में कार उपलब्ध करानी है" - टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा ने जब यह घोषणा की थी तो बहुतों को शायद यह यकीन दिलाना भी मुश्किल हुआ होगा की ऐसे समय में जब चारो ओर महंगाई की हाहाकार है और सब कोई पैसे कमाने और बनाने के चक्कर में सामानों के दाम बढाने की फिराक में लगे रहते हैं एक भारतीय जनता से वादा करे और उसे सच करे. रतन टाटा ने यह तो साबित कर ही दिया है की आज भी अगर हममें सच और साहस हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है.

एक लाख की कार बनाने की और लॉन्च करने की घोषणा करते समय शायद रतन टाटा को यह मालूम भी नहीं रहा होगा की यह कार भारतीय सड़क सुरक्षा के माप डंडों पर सही उतरेगा, लोग सुरक्षित अपने घर तक पहुँच पायेंगे या नहीं या फिर इस कार को बनाने में जो लोहा और अन्य कल पुर्जे उपयोग में लाये जायेंगे उनका मूल्य भी वापस आ पायेगा या नहीं. इस एक लाख की कार के सच को साकार होते हुए हर भारतीय के मन में एक गर्व तो जरूर पैदा हुआ होगा की हम भारतीय कुछ भी कर दिखाने का अदम्य साहस रखते हैं.

नैनो जो सिर्फ नाम और पैसे के मामले में एक छोटी कार है, अब तक प्राप्त हुई सूचनाओं के आधार पर एक बात तो पता चल ही गयी है की हरेक हिन्दुस्तानी जिसके परिवार में ४ सदस्य है अब कार में एक साथ बैठकर बाहर घुमने जा सकेंगे.

दूसरी बात जो मुझे इसमें अच्छी लगी वो यह की यह कार वाकई में भारत की मूलभूत आवश्यकताओं को ख्याल में रखकर बनायी गयी है. इसकी ईंधन की कार्यक्षमता जो की लगभग २२ किलोमीटर है काफी हद तक आम आदमी के बजट के अन्दर में है. आज विश्व भर में समाज के पिछडे वर्गों के समस्याओं को ध्यान में रखकर ऐसे सामानों का आविष्कार करना जरूरी है जिससे कमजोर और जरूरतमंद लोगों को लाभ मिल सके. नैनो इस कड़ी में भारत की तरफ से शायद एक सर्वप्रथम प्रयास है और आशा है की इससे सबक लेकर हम सब भी कुछ न कुछ ऐसा सोचेंगे जिससे भारत फिर से विश्व मंच पर सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर सके.



टाटा नैनो के कुछ विडियो यहाँ पर देखिये और अपने सुझाव जरूर लिखिए. आखिर आप ही के लिए तो में यह सब यहाँ लिखता हूँ.

टाटा नैनो का आज मुंबई में लॉन्च किया गया




टाटा नैनो एक परिवार की कार है - रतन टाटा





नैनो के प्रारंभिक ग्राहकों का चुनाव लॉटरी के द्वारा


Sunday, March 22, 2009

राजनितिक भाषणों में अपभ्रंश शब्दों के उपयोग को रोकना जरूरी

यह हम सब जानते हैं कि चुनाव जितना जरूरी है और चुनावी प्रचार प्रसार में विरोधी पार्टी के नेताओं के ऊपर कटाक्ष करना भी जरूरी है लेकिन हम भारतीय जो एक सज्जन मानव के रूप में जाने जाते हैं हमने सदा से ही मान और मर्यादा को सर्वोपरि रक्खा है यह कहाँ उचित है कि हमारे नेता गन खुलेआम अप्ब्रंश शब्दों का प्रयोग करें. उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज कि जनता काफी जागरूक हो चुकी है और उन्हें ऊंच नीच का काफी ज्ञान है.

पिछले सप्ताह तो एक तरीके से देखें तो यह प्रतीत होता है कि हमारे राजनेता लोग सदाचार कि भाषा का प्रयोग करना ही भूल गए. एक तरफ वरुण गाँधी जो एक युवा नेता और काफी मर्यादित परिवार से सम्बन्ध रखते हैं खुलेआम एक ख़ास वर्ग के खिलाफ अपमानजनक भाषा बोल गए. यह सच है कि चुनाव आयोग ने उन्हें इसके लिए काफी फटकार लगाई है और बीजेपी को यह सुझाव भी दिया है कि वरुण गाँधी को चुनाव का टिकट नहीं दिया जाए.



भारतीयता और भारतीय संस्कृति कि गुनगाथा का राग अलापने वाली शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे ने तो हमारे वर्तमान प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के बारे में ऐसे शब्द का प्रयोग किया जो हम शायद बंद कमरे में भी करने में संकुचन महसूस करते हैं.



उद्धव ठाकरे के मुख से ऐसे अपभ्रंश शब्द सुनने के बाद बौखलाई कांग्रेस ने तो यहाँ तक कह डाली की अगर वे महात्मा गाँधी और नेहरु जैसे नेताओं वाली पार्टी नहीं होते तो उद्धव की जीव निकालवा लेते. पता नहीं गुस्से की कोई हद क्यों नहीं होती.



बातें होंगी तो उनका बतंगड़ भी होगा और अपभ्रंशता की इस राजनीतिक माहौल में कहीं न कहीं हमारे सभ्यता को भी तो आंच आती ही है. क्या करें हम.

Saturday, March 21, 2009

अमिताभ की राजनितिक आरक्षण

हम सबके सुपरस्टार अभिनेता अमिताभ बच्चन जो राजनीति के साथ आँख मिचौली करते रहे हैं. राजीव गाँधी के काफी करीबी रहे अमिताभ ने जब पहली बार १९८४ में चुनाव लड़ी तो राजनीति के दिग्गज हेमवती नंदन वहुगुना को हराकर एक रिकार्ड विजय हासिल की. यह तो काफी लोगों को याद होगा की जब अमिताभ चुनाव सभा के लिए जाते थे तो लाखों की भीड़ जमा होती थी और महिलायें अपनी ओढनी बिछाकर अमिताभ का स्वागत करती थीं.

लेकिन जब गाँधी खानदान से रिश्ते बिगाड़ने लगे तब अमिताभ ने राजनीति को संन्यास दे दिया और वह समय उनके जिंदगी का एक काफी कठिन और मुश्किलों से भरा था. अमिताभ की पिक्चरें पिट रही थी और उनकी कम्पनी काफी घाटे में थी. आखिरिकर अपने कला और साहस के बल बूते उन्होंने फिर से अपनी साख जमाई और आज फिर से देश के महानायक माने जाने लगे हैं.

कहीं न कहीं राजनीति में होने की एक भूख, एक दर्द तो अमिताभ जी के जहन में है ही नहीं तो अबतक कभी भी प्रकाश झा के साथ काम नहीं करने वाले अमिताभ उनकी आनेवाली फिल्म आरक्षण के लिए हामी भर दी. और वह भी ऐसे समय में जब प्रकाश झा खुद भी राजनीति में अपनी भाग्य दुबारा आजमाने जा रहे हैं. पिछली लोकसभा चुनाव में वे बुरी तरह से हार गए थे और इस बार उनका टक्कर लालू यादव के साले साधू यादव से है जो बागी बनकर कांग्रेस के टिकेट पर बिहार के वेतिया से चुनाव लड़ रहे हैं.

इस फिल्म में वे आरक्षण के खिलाफ चली मुहीम में एक राजनितिक नेता का रोल करेंगे. अब देखते हैं यह पिक्चर जिसमे प्रकाश झा जो विरोधाभाष के ऊपर सिनेमा बनाने में महारत रखते हैं अमिताभ के किरदार और आरक्षण जैसे मुद्दे की अहमियत को बरकरार रखते हुए अमिताभ की प्रतिभा को एक राजनितिक के रूप में किस मुकाम तक ले जाते हैं.



आरक्षण की आग जो एक समय हिन्दुस्तान के अस्तित्व को झंकझोर कर रख दिया था हमें इस बात की उत्सुकता रहेगी की यह पिक्चर आरक्षण के कड़वे सच को किस बारीकी से रुपहले परदे पर प्रस्तुत करती है.

आचार संहिता की अवहेलना - कोई रोक सके तो रोकले

जिस रफ़्तार से चुनाव आयोग के पास आचार संहिता के अवलेहना की शिकायतें आ रही है ऐसा लगता है के जबतक चुनाव संपन्न होंगे, शायद ही कोई ऐसा नेता बचेगा जिसके खिलाफ चुनाव आयोग अवहेलना की नोटिस नहीं भेज चूका होगा.

शायद हमारी चुनाव आयोग यह भूल गयी है की हम एक प्रजातंत्र राष्ट्र हैं और हमारी न्याय प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसमें नोटिस जारी करना तो आसान है लेकिन किसी को (खासकर अगर वह आदमी एक नेता हो) कानून के दायरे में लाकर सजा दिलवाना उतना ही मुस्किल है.

आज में अपने ब्लॉग में अबतक अवहेलना के आरोप में पकडे गए सारे नेताओं के बारे में चर्चा करते हैं. इतने सारे नाम आने के बाद तो कभी कभी मुझे यह शक होने लगता है कि कहीं हमारे नेताजी लोगों को अवहेलना क्या होती है यह पता ही तो नहीं है.

फिर शायद चुनाव आयोग को एक क्लास लेकर सारे नेता लोगों को यह सबक सिखाना होगा कि आचार संहिता क्या होती है और इसके फंदे से कैसे बच्चा जाए या फिर उलंघन के माध्यम से हमारे नेतागण अपने आपको जनता के बीच मशहूर (पब्लिसिटी) करना चाहते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो कल वरुण गाँधी के वकील यह नहीं कहते की सजा देना चुनाव आयोग
की सीमा से बाहर की बात है और हम सब यह जानते हैं की जबतक हमारी न्यायप्रणाली कोई फैसला लेगी तबतक चुनाव हो गए होंगे और हमारे वरुण भाई लोकसभा सद्श्य बनकर भारतीय संसद में पहुँच चुके होंगे.



पुत्र तो पुत्र अब वरुण की माता मेनका गाँधी पर भी चुनाव आचार संहिता के उलंघन का आरोप लग गया है. शायद इसीलिए कहा गया है - कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति.



इन सब का परिणाम चाहे जो भी हो एक बात तो सच है की आचार संहिता के उल्लंघन के बाद छोटे छोटे नेता को भी समाचार टीवी चैनलों पर काफी अहमियत मिल जाती है और बिना किसी खर्चा पानी के प्रचार भी हो जाता है. आजकल जब की चुनाव आयोग छोटी छोटी अवहेलना को इतना सारा तुल देकर नेता जी लोगों के नाक की नकेल बन गए हैं मुफ्त प्रचार का इससे अच्छा और क्या माध्यम हो सकता है. लगे रहिये नेताजी हम तो जनता हैं अपनी आँख और अपने समय की परवाह किये बिना आप को झेलते रहे हैं और झेलते रहेंगे.



चलिए फिलहाल इतना ही - हम हैं राही चुनाव के फिर मिलेंगे लिखते लिखते.

Friday, March 20, 2009

सपनों में एक बाग़ लगाया

सपनों में एक बाग़ लगाया
फल फूलों से उसे सजाया
सुबह हुई जब आँख खुली तो
वहीँ वीरान खुद को अकेला पाया.

दिल के गुलशन में एक फूल खिला था
कहीं दूर किसी के अपने के होने का एहसास मिला था
होश संभला तो ये ख़याल आया
अजनबी तो अजनबी होते हैं मैंने क्यों दिल को फुसलाया

राह चलते एक दिन यूँही पीछे से
किसी के क़दमों की खटखटाहट महसूस हुई
जब तक इस आनंद से दिल सराबोर होता
मुहँ मोडा तो देखा हवा का एक तेज झोंका आया